Monday 20 April 2015

कॉलेज का आखरी हफ्ता

दो साल पहले की बात है, कॉलेज का आखरी कुछ हफ्ता चल रहा है। कैंपस काफी बड़ा है तो सोचा आज कुछ उन जगहों को खोजा जाये जो व्यस्तता के कारण अनदेखी रह गयी हैं। 
आशिक़ों का तो आप जानते हैं, बंदी से बतियाने में ऐसी ऐसी जगह खोज निकलते हैं की जहाँ मानव , चाँद पे तो पहुच सकता है लेकिन वहां नहीं।
खैर, मैं कान में earphone लगाये चले जा रहा था। 
आप कभी सोचियेगा, कुछ जगहों में आप आपनी यादें छोड़ आते हैं, वैसी ही संभाली हुई और यकायक अगर आप उधर से गुज़रें तो वो याद वैसे ही ताज़ा होके आपके सामने आएगी भले ही सालों पुरानी क्यों न हो।
आप वहां पर सब कुछ जिवंत देख सकते हैं। सब कुछ वैसे ही चलता हुआ, बात करता हुआ, और आप समय के इस मुहाने पे खड़े होक वो सब चलता हुआ देख सकते है, महसूस कर सकते हैं पर छू नहीं सकते और न ही फिर से वो जी सकते हैं।
ऐसा ही कुछ हुआ जब साइकोलॉजी-लैब के पास पंहुचा। ये वो गली हुआ करती थी जहाँ से हम जाने कितनी बार गुज़रे। और हर बार कुछ न कुछ यादों के टुकड़े वही गिरा आये।
आज सुबह जब वहां से गुज़रा तो सोचा, याद नहीं करना चाहा लेकिन मुझे एक भगोड़े अपराधी की तरह पकड़ लिया गया मेरे कमज़ोर क्षण में।
मैं भी बस वो पल सिनेमा की तरह चलता देख रहा था अपने अंतर्मन में, यहीं सामने कक्षा में दोस्तों के साथ पढ़ना, उनका हँसना, मेरा सबको हँसाना और वो सब शरारतें जो कभी सुकून देती थी।
आज भी लाइट वैसे ही जल रही थी, शायद मुझे याद कर रही थी। मै एकटक देख रहा, आज कुछ ज्यादा तेज़ था उसका प्रकाश, झेला नहीं जा रहा था, आँखें जल सी रही थीं, कबूतर आज भी गलियारे में फसे हुए मिले.
वापस आ गया फिरसे उन यादों के टुकड़े वही गिरा के, शायद सालों बाद फिर कभी उठाने जाऊ
बीते दिन के साथ धुमिल होता अतीत
पर नही मिटती कुछ यादें जो जेहन में बस गयी है
आ जाती है मानस पटल पर मुस्कुराने की वजह बनकर.



RAVI

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