1 . कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा॥
अर्थात
न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं॥
2 . संरोहति अग्निना दग्धं वनं परशुना हतं ।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक् क्षतम् ॥
अर्थात
भयानक आग से नष्ट हुए वन या फिर कुल्हाडियों से काटे गए वन में भी धीरे-धीरे पेड़-पौधे उगने लगते हैं, लेकिन अप्रिय और कटु वचनों से दिए गए घाव कभी नहीं भर पाते हैं ।
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