Friday, 16 January 2015

यार इससे ज़्यादा कोई "छेर" नहीं सकता।


लैट्रीन के लिए "छेरना" से ज्यादा स्वदेशी शब्द नहीं डिक्शनरी में। लाजवाब शब्द है। किसी भोजन करते हुए व्यक्ति के सामने इस मधुर शब्द का उच्चारंणमात्र ही उसके अन्दर के विकारों को उलटी के रूप में निकाल फेंकने को सक्षम है। "छेर" भी बहुत कुछ इंसानों जैसी ही होती है। रंग गेहूंआ होने के साथ साथ एक बड़ी समानता ये भी होती है की जिस प्रकार हम लोग हर वक्त हड़बड़ी में होते हैं वैसे ही "छेर" भी किसी जल्दबाजी में होती है। वो छेर ही क्या जो "छेरनी-कक्ष" के बीस फर्लांग दूर से टपकती हुई अपने लक्ष्य को प्राप्त ना करे। छेर को आप टाल नहीं सकते। यह हमें समय का पाबन्द बनाती है। हमारे दिलों में यदि ठंढ, अँधेरा, छिपकली, तेलचट्टों आदि का भय हो तो यह हमें उस से भी परे रहना सिखाती है। आप चाहे कितना भी स्नान-ध्यान कर लें, जब तक छेरेंगे नहीं; मन पवित्र नहीं होगा। स्वयं की गलती लोगों को अक्सर नजर नहीं आती, इसी प्रकार स्वयं किया गया छेर भी हमें दुर्गन्धित नहीं लगता। यह हमारे जीवन से जुडी है। माँ, बाप, भाई, बहन, दोस्त, रिश्तेदार सब समय और उम्र के साथ पीछे छूट जाते हैं। पर यह छेर ही है जो आजीवन लोगों का साथ निभाता है। किसी भी दुःख, रोग, परेशानी, गरीबी में साथ नहीं छोड़ता। चाहे आप घी, पुए-पकवान खाओ अथवा सत्तू-चना; हर छेर का रंग एक ही होगा। फिर आदमी में यह भेद-भाव क्यों। क्या अमीर के छेर सोने के होते हैं? क्या गरीब सत्तू छेरता है? क्या मुल्लों के छेर से अजान की आवाजें आती हैं? या क्या हिन्दू का छेर केशरिया होता है? यह छेर ही है जो इंसान को इंसान से प्रेम करना सिखाता है। कहा भी गया है, "बैर कराती मंदिर-मस्जिद, मेल कराती छेर-शाला" बचपन में हम सब जब पाखाने-कक्ष के पाँवदान पर बैठने में असमर्थ हुआ करते थे तब हमारी माताजी अपने दोनों पैरों के बीच में बिठा कर छेरवाया करती थीं। तब छेरने में भी मजा आता था और माँ की ममता का सानिध्य भी प्राप्त हो जाता था।

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